“मुहर्रम: बलिदान, त्याग, आस्था और इतिहास का पवित्र महीना”
चित्तौड़गढ़ न्यूज डेस्क | विशेष रिपोर्ट
इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना ‘मुहर्रम’ केवल एक नई शुरुआत नहीं है, बल्कि यह त्याग, बलिदान और सच्चाई की राह पर चलने की मिसाल है। 10वीं और 11वीं तारीख़ (आशूरा) को मुस्लिम समुदाय विशेष रूप से याद करता है करबला के रण को, जहाँ हक़ और बातिल के बीच निर्णायक युद्ध हुआ।
करबला की जंग: इंसाफ़ बनाम ज़ुल्म
सन 680 ईस्वी में इराक के करबला मैदान में हज़रत इमाम हुसैन (रजि.), जो पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नवासे थे, उन्हें यज़ीद की तानाशाही सरकार के सामने झुकने से मना करने की कीमत शहादत से चुकानी पड़ी।
यज़ीद ने खिलाफत (इस्लामी नेतृत्व) पर ज़बरदस्ती कब्ज़ा किया और अपनी सत्ता को वैध ठहराने के लिए इमाम हुसैन से बैयत (आज्ञा स्वीकार करना) माँगी। इमाम हुसैन ने कहा:
> “एक ज़ालिम और फासिक शासक को मानना, इस्लाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ़ है।”
नतीजा: कर्बला में 72 साथियों सहित इमाम हुसैन शहीद हुए, पानी भी रोक दिया गया, उनके बच्चों तक को नहीं बख़्शा गया।
🔴 सुन्नी और शिया मुस्लिम कैसे मनाते हैं मुहर्रम?
शिया समुदाय:
मातम (सीना ज़नी) कर, कर्बला के ग़म को प्रकट करते हैं।
मजलिस (धार्मिक सभाएं) आयोजित होती हैं।
ताज़िया बनाकर जुलूस निकाले जाते हैं।
इमाम हुसैन की शहादत की कहानियाँ सुनाई जाती हैं।
सुन्नी समुदाय:
10 मुहर्रम (आशूरा) का रोज़ा रखते हैं।
कुरआन पढ़ना, दुआ करना, खैरात बाँटना।
कोई उत्सव नहीं मनाते, बल्कि इसे ग़म और इबादत का दिन मानते हैं।
भारत में ताजियादारी की शुरुआत कैसे हुई?
भारत में मुगल काल में मुहर्रम की ताजियादारी की शुरुआत हुई। विशेषकर लखनऊ, हैदराबाद, भोपाल में नवाबों ने इमामबाड़ों का निर्माण कराया और ताज़िए (इमाम हुसैन की क़ब्र की प्रतीकात्मक प्रतिकृति) बनाए जाने लगे।
ताज़िए का जुलूस करबला की याद में शोक स्वरूप निकाला जाता है। यह जुलूस हिन्दू-मुस्लिम एकता की भी मिसाल रहा है, जिसमें सभी समुदायों के लोग हिस्सा लेते हैं।
आशूरा का रोज़ा क्यों और कितने?
पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.) ने कहा कि यहूदी भी आशूरा (10 मुहर्रम) को रोज़ा रखते हैं क्योंकि इसी दिन हज़रत मूसा को फिरऔन से निजात मिली थी।
इसलिए उन्होंने फरमाया:
> “तुम 10 और 9 या 10 और 11 दोनों दिन रोज़ा रखो ताकि मुसलमानों की पहचान अलग रहे।”
– इसलिए 2 दिन का रोज़ा रखना मुस्तहब (अच्छा) माना गया है – 9 वीं और 10 वीं या 10 वीं और 11 वीं मुहर्रम।
– यज़ीद की खिलाफत और इस्लामी क्रांति
यज़ीद ने इस्लामी सिद्धांतों को ताक पर रखकर तानाशाही स्थापित की।
शराब, नाच-गाना, भ्रष्टाचार, महिलाओं का अपमान – सब उसके शासन में आम था।
इमाम हुसैन ने कहा: “मौत को इज्ज़त से गले लगाना, ज़ुल्म के आगे झुकने से बेहतर है।”
यज़ीद की मौत के बाद मक्का, मदीना और इराक में इस्लामी जागरूकता आई और कई वर्षों तक खिलाफत की बहाली को लेकर आंदोलन होते रहे।
– मुहर्रम कोई त्यौहार नहीं, बलिदान का प्रतीक है।
यह हमें सिखाता है कि सत्ता के आगे झुकना नहीं, सत्य के लिए खड़े रहना ही असली इस्लाम है।
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